पठन सामग्री, अतिरिक्त प्रश्न और उत्तर और व्याख्या - दोहे स्पर्श भाग - 2
व्याख्या
प्रस्तुत पाठ में कवि मैथलीशरण गुप्त ने सही अर्थों में मनुष्य किसे कहते हैं उसे बताया है। कविता परोपकार की भावना का बखान करती है तथा मनुष्य को भलाई और भाईचारे के पथ पर चलने का सलाह देती है।
कवि कहते हैं मनुष्य को ज्ञान होना चाहिए की वह मरणशील है इसलिए उसे मृत्यु से डरना नहीं चाहिए परन्तु उसे ऐसी सुमृत्यु को प्राप्त होना चाहिए जिससे सभी लोग मृत्यु के बाद भी याद करें। कवि के अनुसार ऐसे व्यक्ति का जीना या मरना व्यर्थ है जो खुद के लिए जीता हो। ऐसे व्यक्ति पशु के समान है असल मनुष्य वह है जो दूसरों की भलाई करे, उनके लिए जिए। ऐसे व्यक्ति को लोग मृत्यु के बाद भी याद रखते हैं।
जो लोग संसार में आत्मीयता और भाईचारे को फैलाते हैं, उन्हें पुस्तकों में स्थान देकर उनका बखान किया जाता है, उनका समस्त लोग आभार मानते हैं तथा पूजते हैं। असल मनुष्य वह है जो दूसरों के लिए जिए मरे।
अगली पंक्तियों में कवि ने पौरणिक कथाओं का उदारहण दिया है। भूख से व्याकुल रंतिदेव ने माँगने पर अपना भोजन का थाल भी दे दिया तथा देवताओं को बचाने के लिए दधीचि ने अपनी हड्डियों को व्रज बनाने के लिए दिया। राजा उशीनर ने कबूतर की जान बचाने के लिए अपने शरीर का मांस बहेलिए को दे दिया और वीर कर्ण ने अपना शारीरिक रक्षा कवच दान कर दिया। नश्वर शरीर के लिए मनुष्य को डरना नही चाहिए।
कवि ने उपकार की भावना को सबसे बड़ी पूंजी बताया है और कहा है की इससे ईश्वर भी वश में हो जाते हैं। बुद्ध ने करुणावश पुरानी परम्पराओं को तोड़ा जो कि दुनिया की भलाई के लिए था इसलिए लोग आज भी उन्हें पूजते हैं। उदार व्यक्ति वह है जो दूसरों की भलाई करे।
कवि कहते हैं की अगर किसी मनुष्य के पास यश, धन-दौलत है तो उसे इस बात के गर्व में अँधा होकर दूसरों की उपेक्षा नही करनी नहीं चाहिए क्योंकि इस संसार में कोई अनाथ नहीं है। ईश्वर का हाथ सभी के सर पर है। प्रभु के रहते भी जो व्याकुल है वह बड़ा भाग्यहीन है।
कवि देवताओं का उदारहण देते हुए कहते हैं की जिस तरह अंतरिक्ष में सभी देवता अपनी शक्तियों से मिलकर काम करते हैं उसी तरह मनुष्य को भी परस्पर सम्बन्ध बनाकर रहना चाहिए। किसी और काम में व्यवधान ना डालते हुए एक दूसरे के काम में सहयोग करना चाहिए।
सभी मनुष्य एक दूसरे के भाई-बंधू है यह बहुत बड़ी समझ है सबके पिता ईश्वर हैं। भले ही मनुष्य के कर्म अनेक हैं परन्तु उनकी आत्मा में एकता है। कवि कहते हैं कि अगर भाई ही भाई की मदद नही करेगा तो उसका जीवन व्यर्थ है यानी हर मनुष्य को दूसरे की मदद को तत्पर रहना चाहिए।
अंतिम पंक्तियों में कवि मनुष्य को कहता है कि अपने इच्छित मार्ग पर प्रसन्नतापूर्वक हंसते खेलते चलो और रास्ते पर जो बाधा पड़े उन्हें हटाते हुए आगे बढ़ो। परन्तु इसमें मनुष्य को यह ध्यान रखना चाहिए कि उनका आपसी सामंजस्य न घटे और भेदभाव न बढ़े। जब हम एक दूसरे के दुखों को दूर करते हुए आगे बढ़ेंगे तभी हमारी समर्थता सिद्ध होगी और समस्त समाज की भी उन्नति होगी।
कवि परिचय
मैथिलीशरण गुप्त
इनका जन्म 1886 में झाँसी के करीब चिरगाँव में हुआ था। अपने जीवन काल में ही ये राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात हुए। इनकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। संस्कृत, बांग्ला, मराठी और अंग्रेजी पर इनका सामान अधिकार था। ये रामभक्त कवि हैं। इन्होने भारतीय जीवन को समग्रता और प्रस्तुत करने का प्रयास किया।
प्रमुख कार्य
कृतियाँ - साकेत, यशोधरा जयद्रथ वध।
कठिन शब्दों के अर्थ
• मृत्य - मरणशील
• वृथा - व्यर्थ
• पशु–प्रवृत्ति - पशु जैसा स्वभाव
• उदार - दानशील
• कृतार्थ - आभारी
• कीर्ति - यश
• क्षुधार्थ - भूख से व्याकुल
कवि कहते हैं मनुष्य को ज्ञान होना चाहिए की वह मरणशील है इसलिए उसे मृत्यु से डरना नहीं चाहिए परन्तु उसे ऐसी सुमृत्यु को प्राप्त होना चाहिए जिससे सभी लोग मृत्यु के बाद भी याद करें। कवि के अनुसार ऐसे व्यक्ति का जीना या मरना व्यर्थ है जो खुद के लिए जीता हो। ऐसे व्यक्ति पशु के समान है असल मनुष्य वह है जो दूसरों की भलाई करे, उनके लिए जिए। ऐसे व्यक्ति को लोग मृत्यु के बाद भी याद रखते हैं।
जो लोग संसार में आत्मीयता और भाईचारे को फैलाते हैं, उन्हें पुस्तकों में स्थान देकर उनका बखान किया जाता है, उनका समस्त लोग आभार मानते हैं तथा पूजते हैं। असल मनुष्य वह है जो दूसरों के लिए जिए मरे।
अगली पंक्तियों में कवि ने पौरणिक कथाओं का उदारहण दिया है। भूख से व्याकुल रंतिदेव ने माँगने पर अपना भोजन का थाल भी दे दिया तथा देवताओं को बचाने के लिए दधीचि ने अपनी हड्डियों को व्रज बनाने के लिए दिया। राजा उशीनर ने कबूतर की जान बचाने के लिए अपने शरीर का मांस बहेलिए को दे दिया और वीर कर्ण ने अपना शारीरिक रक्षा कवच दान कर दिया। नश्वर शरीर के लिए मनुष्य को डरना नही चाहिए।
कवि ने उपकार की भावना को सबसे बड़ी पूंजी बताया है और कहा है की इससे ईश्वर भी वश में हो जाते हैं। बुद्ध ने करुणावश पुरानी परम्पराओं को तोड़ा जो कि दुनिया की भलाई के लिए था इसलिए लोग आज भी उन्हें पूजते हैं। उदार व्यक्ति वह है जो दूसरों की भलाई करे।
कवि कहते हैं की अगर किसी मनुष्य के पास यश, धन-दौलत है तो उसे इस बात के गर्व में अँधा होकर दूसरों की उपेक्षा नही करनी नहीं चाहिए क्योंकि इस संसार में कोई अनाथ नहीं है। ईश्वर का हाथ सभी के सर पर है। प्रभु के रहते भी जो व्याकुल है वह बड़ा भाग्यहीन है।
कवि देवताओं का उदारहण देते हुए कहते हैं की जिस तरह अंतरिक्ष में सभी देवता अपनी शक्तियों से मिलकर काम करते हैं उसी तरह मनुष्य को भी परस्पर सम्बन्ध बनाकर रहना चाहिए। किसी और काम में व्यवधान ना डालते हुए एक दूसरे के काम में सहयोग करना चाहिए।
सभी मनुष्य एक दूसरे के भाई-बंधू है यह बहुत बड़ी समझ है सबके पिता ईश्वर हैं। भले ही मनुष्य के कर्म अनेक हैं परन्तु उनकी आत्मा में एकता है। कवि कहते हैं कि अगर भाई ही भाई की मदद नही करेगा तो उसका जीवन व्यर्थ है यानी हर मनुष्य को दूसरे की मदद को तत्पर रहना चाहिए।
अंतिम पंक्तियों में कवि मनुष्य को कहता है कि अपने इच्छित मार्ग पर प्रसन्नतापूर्वक हंसते खेलते चलो और रास्ते पर जो बाधा पड़े उन्हें हटाते हुए आगे बढ़ो। परन्तु इसमें मनुष्य को यह ध्यान रखना चाहिए कि उनका आपसी सामंजस्य न घटे और भेदभाव न बढ़े। जब हम एक दूसरे के दुखों को दूर करते हुए आगे बढ़ेंगे तभी हमारी समर्थता सिद्ध होगी और समस्त समाज की भी उन्नति होगी।
कवि परिचय
मैथिलीशरण गुप्त
इनका जन्म 1886 में झाँसी के करीब चिरगाँव में हुआ था। अपने जीवन काल में ही ये राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात हुए। इनकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। संस्कृत, बांग्ला, मराठी और अंग्रेजी पर इनका सामान अधिकार था। ये रामभक्त कवि हैं। इन्होने भारतीय जीवन को समग्रता और प्रस्तुत करने का प्रयास किया।
प्रमुख कार्य
कृतियाँ - साकेत, यशोधरा जयद्रथ वध।
कठिन शब्दों के अर्थ
• मृत्य - मरणशील
• वृथा - व्यर्थ
• पशु–प्रवृत्ति - पशु जैसा स्वभाव
• उदार - दानशील
• कृतार्थ - आभारी
• कीर्ति - यश
• क्षुधार्थ - भूख से व्याकुल
• रंतिदेव -एक परम दानी राजा
• करस्थ - हाथ में पकड़ा हुआ
• दधीची - एक प्रसिद्ध ऋषि जिनकी हड्डियों से इंद्र का व्रज बना था• परार्थ - जो दूसरे के लिए हो
• अस्थिजाल - हड्डियों का समूह
• उशीनर - गंधार देश का राजा
• क्षितीश - राजा
• स्वमांस - शरीर का मांस
• कर्ण - दान देने के लिए प्रसिद्ध कुंती पुत्र
• अनित्य - नश्वर
• अनादि - जिसका आरम्भ ना हो
• सहानुभूति - हमदर्दी
• महाविभूति - बड़ी भारी पूँजी
• वशीकृता - वश में की हुई
• विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा - बुद्ध ने करुणावश उस समय की पारम्परिक मान्यताओं का विरोध किया था।
• विनीत - विनय से युक्त
• मदांध - जो गर्व से अँधा हो।
• वित्त - धन-संपत्ति
• अतीव - बहुत ज्यादा
• अनंत - जिसका कोई अंत ना हो
• परस्परावलम्ब - एक-दूसरे का सहारा
• अमृत्य–अंक - देवता की गोद
• अपंक - कलंक रहित
• स्वयंभू - स्वंय से उत्पन्न होने वाला
• अंतरैक्य - आत्मा की एकता
• प्रमाणभूत - साक्षी
• अभीष्ट - इक्षित
• अतर्क - तर्क से परे
• सतर्क पंथ - सावधानी यात्रा